![]() | All_Days | 141089 |
देश के राजनीतिक सांस्कृतिक क्षेत्रा में जो परिदृश्य उपस्थित है और कमोबेश उसको जनमत का जो समर्थन प्राप्त हुआ है उसे देखते हुए प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, वामपंथी शक्तियों के मध्य एक तरह की निराशा, हताशा, क्या करें क्या न करें वाली अनिश्चयता की घेरेबंदी बहुत अस्वाभाविक नहीं है। ऐसा निस्तेज आजादी के बाद शायद पहली बार घटित हो रहा है। दूसरी और यह भी पहली बार हो रहा है कि सत्ता की खुराक पाकर दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक ताकतें बेतरह उन्माद, अहंकार, हिंसा से बेलगाम भरी हुई हैं। बेशक इनका प्रतिकार होगा। जनता, मानवाधिकार और सौहार्द को समर्पित संस्थाएं, भारत की बहुल संस्कृति में भरोसा रखने वाले राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया सोशल मीडिया का एक तबका निश्चय ही देर सबेर संघर्षशील प्रतिपक्ष की भूमिका निबाहेगा। दरअसल वर्तमान में चिंता अधिक गंभीर तथा मारक इसलिए हो गई है कि सामान्य जन का एक खासा बड़ा हिस्सा राजनीति, संस्कृति, वैचारिकी के मोर्चे पर अनुदार और मनुष्यताविरोधी सत्ता को समर्थन देता दिखाई देता है। जब लगभग तीन वर्ष पहले केंद्र में भाजपा सरकार आरूढ़ हुई तो उसकी एक मीमांसा यह हुई कि पूंजी, प्रचार, संगठन, असत्य के सहारे उसने विजय पाई और जनमत एक कपटी किंतु विशाल मायाजाल का शिकार हुआ। दिल्ली एवं बिहार के विधानसभा चुनावों के भिन्न परिणामों ने सचमुच इस विश्लेषण को मजबूत किया कि 2014 का नतीजा एक दुःस्वप्न था जो अब टूट रहा है। इस ख्याल में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव निर्णायक मोड़ सिद्ध हो सकता था मगर इसमें भाजपा की धुआंधार फतेह ने भयानक पलटवार कर दिया।